Saturday 28 January 2017

काशी में भगवान शिव देते है मोक्ष

अव्यक्त तथा अनन्त परमात्मा के सम्बन्ध में विचार विमर्श करते हुए महर्षि अत्रि ने महर्षि याज्ञवल्क्य से पूंछा कि उस व्यक्त और अनन्त परमात्मा को हम किस प्रकार जानें। इसपर याज्ञवल्क्य ने कहा कि उस अव्यक्त तथा अनन्त आत्मा की उपासना आविमुक्त क्षेत्र में हो सकती है, क्योंकि वह वही प्रतिष्ठित है। इसपर अत्रि ने पूछा कि अविमुक्त क्षेत्र कहाँ है। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि वह वरणा तथा नाशी नदियों के मध्य में है। वह वरणा क्या है और वह नाशी क्या है, यह पूछने पर उत्तर मिला कि इन्द्रिय-कृत सभी दोषों का निवारण करनेवाली वरणा है और इन्द्रिय-कृत सभी पापों का नाश करनेवाली नाशी है। वह अविमुक्त क्षेत्र देवताओं का देवस्थान और सभी प्राणियों का ब्रह्मसदन है। वहाँ ही प्राणियों के प्राण-प्रयाण के समय में भगवान् रुद्र (विश्वनाथजी) तारक मन्त्र का उपदेश देते है, जिसके प्रभाव से वह अमृत होकर मोक्ष प्राप्त करता है। अतएव, अविमुक्त में सदैव निवास करना चाहिए। उसको कभी न छोड़े, ऐसा महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा है। बड़े बड़े ब्रह्मज्ञानी काशी वास के लिए आते है, अविमुक्त क्षेत्र में गंगा स्नान का जो फल है वह कही और नहीं यहाँ के स्नान दान धार्मिक कृत्य का कोटि गुना फल अधिक हो जाता है । काशी में वास करने वाला जीव अपने पुण्यो के फल स्वरूप काशी में जन्म लेता है, चाहे वो स्वान हो या बिल्ली या कोई अन्य जीव सब अपने कर्मों के फल स्वरूप ही काशी में जन्म लेते है । इसी लिए हमें याद है कि हमारे गुरु जन कहते थे काशी से कभी कोई जीव न ख़रीदो और न ही शादी करके काशी की कन्या (लड़की) को बाहर ले जाओ, नहीं तो इसका दण्ड भोगना पड़ता है । इसी प्रकार काशी में माँस का सेवन या कोई अन्य दुष्कर्म नहीं करना चाहिए । नहीं तो वह भी कोटि गुना अधिक हो जाता है और उसे मोक्ष नहीं मिलता उसे पहले भैरव ताड़ना मिलती है यमराज का कार्य काशी में नहीं है उनका कार्य यहाँ काल भैरव देखते है । काशी मात्र ५ कोष की है राज घाट से अस्सी घाट और भगवान शिव का सबसे प्रिय स्थान काशी ही है भगवान विश्वनाथ जी के समान कोई शिवलिंग नहीं है , काशी के समान पुरी नहीं है, मणिकर्णिका के समान तीर्थ नहीं है । इस लिए जीवन में काशीवास - गंगा स्नान - विश्वनाथ जी का दर्शन अवस्य करना चाहिए । जिसने ये नहीं किया उसने कुछ नहीं किया ।

ग्रन्थों में अविमुक्त क्षेत्र काशी

तीर्थ के रूप में वाराणसी का नाम सबसे पहले महाभारत में मिलता है । 
बात तो यह है कि इसके पूर्व के साहित्य में तीर्थों के विषय में कुछ कहा ही नहीं गया है । वर्तमान तीर्थस्थलों में बहुधा जंगल थे जिसमे आदिवासियों की इधर-उधर कुछ बस्तियाँ छिट पुट बसी थी । इसके अतिरिक्त वहाँ मनुष्यों का निवास ही नहीं था। आगे चलकर जब उत्तर भारत में सर्वत्र आर्य लोग फैल गये और उनके नगर बस गये, तब आध्यात्मिक सर्वेक्षण के द्वारा तीर्थों के अस्तित्व तथा महात्म्य का पता चला । इस सम्बन्ध में महाभारत में कहा गया है कि जिस प्रकार शरीर के कुछ अवयव पवित्र माने जाते है, उसी प्रकार पृथ्वी के कतिपय स्थान पुण्यप्रद तथा पवित्र होते है। इसमें से कोई तो स्थान कि विचित्रता के कारण, कोई जल के प्रभाव से और कोई ऋषि मुनियों के सम्पर्क से पवित्र हो गया है ।
आधुनिक विचारधारा इस बात को इस प्रकार कहती है कि जहां-जहां मानव के बहुमुख उत्कर्ष के साधन लभ्य हुए, वहीं-वहीं तीर्थों की परिकल्पना हुई । जो कुछ भी हो, विविध तीर्थों के नाम और उनके महात्म्य सबसे पहले पुराण साहित्य में मिलते है, जिसमें महाभारत का शीर्षस्थ स्थान है। यजुर्वेद के जबाल उपनिषद में भी काशी के बारे में महत्वपूर्ण उल्लेख है । इसी क्रम में १८ पुराण में अधिकाधिक ग्रन्थों में काशी के महात्म्य के बारे में और अविमुक्त क्षेत्र के रूप में काशी का ही नाम है, सनातन धर्म के प्रमुख १२ तीर्थों में काशी का प्रथम स्थान है तन्त्र ग्रन्थ तो काशी को सिद्धियों का प्रमुख स्थान मानते है जिसमें मणिकर्णिका का ज़्यादा महात्म्य है । काशी में अच्छे बुरे जो भी कर्म किये जाते है उनका फल करोड़ गुना अधिक होता है आगामी लेख में  इसके बारे में वृहद रूप में बतायेंगे , 
( इस लिंक के द्वारा जाने विश्वनाथ जी काशी में मोक्ष देते है - http://shribatuknathbyashwini.blogspot.com/2017/01/blog-post_43.html )

Friday 13 January 2017

DRAVID SE KASHI KI OR

OR


आर्यों द्वारा वैदिक धर्म के प्रसार के पूर्व काशी-प्रदेश में किस धर्म का प्रचार था और उसका क्या स्वरूप था, इसको समझने के लिए उस समय के भारत का धार्मिक स्वरूप जानना आवश्यक है। अतएव, तत्कालीन धर्म का स्थूल वर्णन करने के बाद ही काशी के विषय में कुछ कहा जा सकेगा। 
    इस विषय में आधुनिक विद्वानों का मत है कि जब मानव बांस और लकड़ियों से झोपड़ियाँ बनाकर उनमें रहने लगे थे, वृक्षों तथा पर्वतों कि पूजा करते थे। जिसमें फल, फूल तथा मांस का प्रसाद लगाया जाता था। पशुओं कि बलि देने कि प्रथा भी चल चुकी थी। बाद में माता की पूजा होने लगी। इसी के साथ-साथ बहुत से ग्राम देवताओं कि आराधना भी प्रारम्भ हुई। ये देवी देवता वर्तमान देवी देवताओं से भिन्न थे और उनकी प्रसन्नता के लिए पशुओं तथा कभी-कभी मनुष्यों कि भी बलि दी जाती थी। मुर्दे गाड़े भी जाते थे और जलाये भी जाते थे। बची हुई अस्थियाँ मिट्टी के बरतनों में भरकर गाड़ दी जाती थी। धर्म का यह रूप उस समय भारत में प्रचलित था। तत्कालीन भारतवर्ष के समस्त निवासियों को आजकल के विद्वान् द्रविण मानते है, यद्यपि पुराणों के अनुसार द्रविण देश विंध्य पर्वत श्रेणी के दक्षिण के भाग का नाम था। जहां तक और लिपि पे दृष्टि गोचर कि जाय तो द्रविण देश के आदिनिवासी उत्तर भारत में भी फैले हुए थे अथवा देश भर में उस समय एक ही वर्ग के मनुष्य रहते थे। जो कुछ भी हो, पुराणकाल में कर्नाटक, तैलंग, गुर्जर, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश को, जो विंध्याचल के दक्षिण में थे, द्रविण देश माना जाता था और उसमें रहनेवालों के लिए पंचद्रविण शब्द प्रयोग में आता था। 
      कार्णाटाश्चैव  तैलंगा  गुर्जर   राष्ट्रवासिन:।
      आंध्राश्च द्रविड़ा: पञ्च विंध्यदक्षिणवासिन:॥
ऋगवेद में इनके लिए दस्यु शब्द मिलता है, जिसका अर्थ है शत्रु अथवा दास। आर्यों का इनके साथ संघर्ष हुआ था, जिससे वेदों में सर्वत्र संकेत मिलते है।  लोगों के लिए ही वहाँ शिश्नदेवा शब्द का भी प्रयोग किया गया है, ऐसा आधुनिक विद्वानों का मत है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की खुदाई में जो सामग्री मिली है उससे यह भी प्रतीत होता है कि जिस समय ऋग्वेद आर्यसभ्यता का पंजाब के विकास हो रहा था, उससे सैकड़ों वर्ष पूर्व सिन्धु नदी की घाटी में एक पूर्णत: विकसित सभ्यता का विकास हो चुका था,जिसका सम्बन्ध द्रविड़ों से माना जाता है। इन लोगों के धर्म में प्रकृतिदेवी अथवा मातृदेव का सबसे प्रमुख स्थान था, जिनकी पूजा उस समय पश्चिमी एशिया में भी प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त, तीन मुख वाले देवता कि भी आराधना होती थी, जिसके चरो ओर पशुओं कि आकृति बनी थी। विद्वत समाज का मानना है वह भगवान शिव का रूप था। और उस समय शिवलिङ्ग कि पूजा होती थी साथ-साथ वृक्षो और पशुओं कि भी पूजा होती थी। मुर्दे गाड़े भी जाते थे और जलाए भी जाते थे उनकी आस्तियां प्रवाहित नहीं कि जाती थी वरन मिट्टी के बर्तन में रख कर गाड़ दी जाती थी ॥
{इसी प्रकार हम काशी की वोर बढ़ते रहेंगे आगे के लेख में }