Friday 13 January 2017

DRAVID SE KASHI KI OR

OR


आर्यों द्वारा वैदिक धर्म के प्रसार के पूर्व काशी-प्रदेश में किस धर्म का प्रचार था और उसका क्या स्वरूप था, इसको समझने के लिए उस समय के भारत का धार्मिक स्वरूप जानना आवश्यक है। अतएव, तत्कालीन धर्म का स्थूल वर्णन करने के बाद ही काशी के विषय में कुछ कहा जा सकेगा। 
    इस विषय में आधुनिक विद्वानों का मत है कि जब मानव बांस और लकड़ियों से झोपड़ियाँ बनाकर उनमें रहने लगे थे, वृक्षों तथा पर्वतों कि पूजा करते थे। जिसमें फल, फूल तथा मांस का प्रसाद लगाया जाता था। पशुओं कि बलि देने कि प्रथा भी चल चुकी थी। बाद में माता की पूजा होने लगी। इसी के साथ-साथ बहुत से ग्राम देवताओं कि आराधना भी प्रारम्भ हुई। ये देवी देवता वर्तमान देवी देवताओं से भिन्न थे और उनकी प्रसन्नता के लिए पशुओं तथा कभी-कभी मनुष्यों कि भी बलि दी जाती थी। मुर्दे गाड़े भी जाते थे और जलाये भी जाते थे। बची हुई अस्थियाँ मिट्टी के बरतनों में भरकर गाड़ दी जाती थी। धर्म का यह रूप उस समय भारत में प्रचलित था। तत्कालीन भारतवर्ष के समस्त निवासियों को आजकल के विद्वान् द्रविण मानते है, यद्यपि पुराणों के अनुसार द्रविण देश विंध्य पर्वत श्रेणी के दक्षिण के भाग का नाम था। जहां तक और लिपि पे दृष्टि गोचर कि जाय तो द्रविण देश के आदिनिवासी उत्तर भारत में भी फैले हुए थे अथवा देश भर में उस समय एक ही वर्ग के मनुष्य रहते थे। जो कुछ भी हो, पुराणकाल में कर्नाटक, तैलंग, गुर्जर, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश को, जो विंध्याचल के दक्षिण में थे, द्रविण देश माना जाता था और उसमें रहनेवालों के लिए पंचद्रविण शब्द प्रयोग में आता था। 
      कार्णाटाश्चैव  तैलंगा  गुर्जर   राष्ट्रवासिन:।
      आंध्राश्च द्रविड़ा: पञ्च विंध्यदक्षिणवासिन:॥
ऋगवेद में इनके लिए दस्यु शब्द मिलता है, जिसका अर्थ है शत्रु अथवा दास। आर्यों का इनके साथ संघर्ष हुआ था, जिससे वेदों में सर्वत्र संकेत मिलते है।  लोगों के लिए ही वहाँ शिश्नदेवा शब्द का भी प्रयोग किया गया है, ऐसा आधुनिक विद्वानों का मत है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की खुदाई में जो सामग्री मिली है उससे यह भी प्रतीत होता है कि जिस समय ऋग्वेद आर्यसभ्यता का पंजाब के विकास हो रहा था, उससे सैकड़ों वर्ष पूर्व सिन्धु नदी की घाटी में एक पूर्णत: विकसित सभ्यता का विकास हो चुका था,जिसका सम्बन्ध द्रविड़ों से माना जाता है। इन लोगों के धर्म में प्रकृतिदेवी अथवा मातृदेव का सबसे प्रमुख स्थान था, जिनकी पूजा उस समय पश्चिमी एशिया में भी प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त, तीन मुख वाले देवता कि भी आराधना होती थी, जिसके चरो ओर पशुओं कि आकृति बनी थी। विद्वत समाज का मानना है वह भगवान शिव का रूप था। और उस समय शिवलिङ्ग कि पूजा होती थी साथ-साथ वृक्षो और पशुओं कि भी पूजा होती थी। मुर्दे गाड़े भी जाते थे और जलाए भी जाते थे उनकी आस्तियां प्रवाहित नहीं कि जाती थी वरन मिट्टी के बर्तन में रख कर गाड़ दी जाती थी ॥
{इसी प्रकार हम काशी की वोर बढ़ते रहेंगे आगे के लेख में }

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