अव्यक्त तथा अनन्त परमात्मा के सम्बन्ध में विचार विमर्श करते हुए महर्षि अत्रि ने महर्षि याज्ञवल्क्य से पूंछा कि उस अव्यक्त और अनन्त परमात्मा को हम किस प्रकार जानें। इसपर याज्ञवल्क्य ने कहा कि उस अव्यक्त तथा अनन्त आत्मा की उपासना आविमुक्त क्षेत्र में हो सकती है, क्योंकि वह वही प्रतिष्ठित है। इसपर अत्रि ने पूछा कि अविमुक्त क्षेत्र कहाँ है। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि वह वरणा तथा नाशी नदियों के मध्य में है। वह वरणा क्या है और वह नाशी क्या है, यह पूछने पर उत्तर मिला कि इन्द्रिय-कृत सभी दोषों का निवारण करनेवाली वरणा है और इन्द्रिय-कृत सभी पापों का नाश करनेवाली नाशी है। वह अविमुक्त क्षेत्र देवताओं का देवस्थान और सभी प्राणियों का ब्रह्मसदन है। वहाँ ही प्राणियों के प्राण-प्रयाण के समय में भगवान् रुद्र (विश्वनाथजी) तारक मन्त्र का उपदेश देते है, जिसके प्रभाव से वह अमृत होकर मोक्ष प्राप्त करता है। अतएव, अविमुक्त में सदैव निवास करना चाहिए। उसको कभी न छोड़े, ऐसा महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा है। बड़े बड़े ब्रह्मज्ञानी काशी वास के लिए आते है, अविमुक्त क्षेत्र में गंगा स्नान का जो फल है वह कही और नहीं यहाँ के स्नान दान धार्मिक कृत्य का कोटि गुना फल अधिक हो जाता है । काशी में वास करने वाला जीव अपने पुण्यो के फल स्वरूप काशी में जन्म लेता है, चाहे वो स्वान हो या बिल्ली या कोई अन्य जीव सब अपने कर्मों के फल स्वरूप ही काशी में जन्म लेते है । इसी लिए हमें याद है कि हमारे गुरु जन कहते थे काशी से कभी कोई जीव न ख़रीदो और न ही शादी करके काशी की कन्या (लड़की) को बाहर ले जाओ, नहीं तो इसका दण्ड भोगना पड़ता है । इसी प्रकार काशी में माँस का सेवन या कोई अन्य दुष्कर्म नहीं करना चाहिए । नहीं तो वह भी कोटि गुना अधिक हो जाता है और उसे मोक्ष नहीं मिलता उसे पहले भैरव ताड़ना मिलती है यमराज का कार्य काशी में नहीं है उनका कार्य यहाँ काल भैरव देखते है । काशी मात्र ५ कोष की है राज घाट से अस्सी घाट और भगवान शिव का सबसे प्रिय स्थान काशी ही है भगवान विश्वनाथ जी के समान कोई शिवलिंग नहीं है , काशी के समान पुरी नहीं है, मणिकर्णिका के समान तीर्थ नहीं है । इस लिए जीवन में काशीवास - गंगा स्नान - विश्वनाथ जी का दर्शन अवस्य करना चाहिए । जिसने ये नहीं किया उसने कुछ नहीं किया ।
Jai vishwnath
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