Saturday 23 September 2017

10 महाविद्या के साथ 10 भैरव

माँ पार्वती समस्त देवियों की मूल शक्ति है । जगत जननी माँ पार्वती चराचर ब्रह्माण्ड में जो कुछ है वह जगत जननी त्रिपुर सुन्दरी माँ पार्वती से ही है । बिना शक्ति के शिव भी शव हो जाते है। भगवती त्रिपुर सुन्दरी के अधीन पूरा ब्रह्माण्ड है । त्रिदेव भी भगवती की ओर ही देखते रहते है ,, और अपने समस्त भाव भगवती माँ पराम्बा से ही प्रारम्भ करते है । स्वयं भगवान शिव के अवतार संत शिरोमणि आदि शंकराचार्य जी ने माँ पराम्बा त्रिपुर सुन्दरी की आराधना की और क्या कहा देखिये -
तनीयांसं पांसुं तव चरणपंकेरुहभवं,
विरिञ्चि: संचिन्वन्विरचयति लोकानविकलम् ।
वहत्येनं शौरि: कथमपि सहस्रेण शिरसां,
हरः संक्षुद्यैनं भजति भसितोद्धूलनविधिम् ।।
अर्थात् - माँ आपके कमल समान श्रीचरणों में लग्न सूक्ष्मातिसूक्ष्म रज की कृपा से ब्रह्मा निरन्तर विश्व की सृष्टि में तत्पर रहते है । विष्णु भगवान् स्वयं शेषावतार धारण कर अपने सहस्रों सिरों से आपकी चरण धूलि से उत्पन्न समस्त लोकों को सप्रयत्न धारण करते है । भगवान् भूतभावन शिव स्वयं तुम्हारी पदधूलि को सम्यक् रूप से भस्मीकृत कर अपने अङ्गों में लगा लेते है । इस तरह ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों मूर्ति पराशक्ति पराम्बा त्रिपुरसुन्दरी माँ की आराधना कर कृतकृत्य हो जाते है ।
इस प्रकार माँ पार्वती ने जब जब अवतार लिया तब तीनों लोकों के प्राणनाथ भगवान भलेनाथ ने भी अवतार लेकर भगवती से विवाह किया । भगवती ने महाविद्या रूप रखा तो बाबा ने भैरव रूप रखा आज हम बतायेंगे की किस महा विद्या के साथ किस भैरव की उपासना करनी चाहिए । बिना एक दूसरे के कोई भी साधना सिद्ध नहीं होती यह अटल सत्य है ।
1 - काली  ,        1-  काल भैरव
2- तारा,             2-  अक्षोभ्य भैरव
3- छिन्मस्ता       3-  विकराल भैरव
4- त्रिपुरसुन्दरी ,  4-  ललितेश्वर भैरव
5- भुवनेश्वरी       5-  महादेव भैरव
6- त्रिपुराभैरवी    6-  भैरव
7- धूमावती         7-  शून्य पुरुष भैरव
8- बगलामुखी     8-  मृत्युञ्जय भैरव
9- मातङ्गी          9-   सदाशिव भैरव
10- कमला        10- नारायण भैरव
इनके अतिरिक्त बटुक भैरव की पूजा सभी देवियों की साथ की जा सकती है । यदि साधक देवी उपासक है तो साथ में बटुक भैरव पूजन कर सकता है पर नियम देवी का ही चलेगा । यदि बटुक भैरव साधक है तो किसी भी महाविद्या की साधना करे पर नियम बटुकनाथ का चलेगा । क्यों कि बटुक भैरव की पूजा सबसे भिन्न है ।

Wednesday 20 September 2017

अश्विन नवरात्रि व्रत /श्रीसंवत् 2074

विवरण -
प्रतिपदा - 21 सितम्बर 2017 गुरुवार , कलश स्थापन प्रातः 6 से 9:58 तक
अष्टमी -   28 सितम्बर 2017 गुरुवार, दशमहाविद्या हवन
नवमी  -   29 सितम्बर 2017 शुक्रवार, हवन , कन्याभोज ,
दशमी -   30  सितम्बर 2017 शनिवार , नवरात्रि व्रत पारण , विजयादशमी

आज हम नवरात्रि के ऊपर बतायेंगे ,, हिन्दू धर्म या कहें चराचर ब्रह्माण्ड में 4 संख्या का बहुत ही बड़ा स्थान है , चार वर्ण, चार वेद, चार शंकराचार्य और चार नवरात्रि ,, देवी उपासना में नवरात्रि का सर्वोच्च स्थान है । किसी देवता की उपासना बिना देवी उपासना के पूर्ण नहीं होती । इस लिए प्रत्येक साधक को किसी एक देवी की उपासना करनी चाहिए । यदि तन्त्र साधना करते है तो महा विद्या और यदि मात्र दैनिक उपासना करते है तो स्व रुचि के अनुसार दस विद्या या नव दुर्गा की उपासना करें । अब हम अपने मूल विषय पे बात करते है । नवरात्रि से स्पष्ट हो रहा कि यहां हम नव + रात्रि के संदर्भ में बात कर रहे, नवरात्रि को कैसे हम ग्रहण करते है ? ये जानिए ! नवरात्रि तिथि के आधार पे होती है। न कि ! दिन के आधार पे यदि किसी तिथि का क्षय हो जाये तो वह नवरात्रि 7 या 8 दिन की हो जाती है । यदि तिथि बढ़ जाये तो 10 दिन की भी हो जाती है । अब हम बात करते है प्रतिपदा की !  प्रतिपदा नवरात्रि का प्रथम दिन है । देवीपुराण और डामर तन्त्र के अनुसार जिस दिन अमावस्या हो उस दिन की प्रतिपदा को ग्रहण नहीं करना चाहिए । ये त्याज्य है। अधिकतर ब्राह्मण स्वलाभ या अज्ञानता में अमावस्या को जब प्रतिपदा लगती है तो कलश स्थापना करा देते है । डामर तन्त्र के अनुसार ये नवरात्रि के प्रभाव को क्षीण कर देता है । इस लिए उदयातिथि की नवरात्रि ही ग्रहण करना चाहिए , कभी ऐसा भी होता है कि प्रतिपदा का क्षय हो जाये तो  द्वितीया युक्त प्रतिपदा ही ग्रहण करना चाहिए । अमावस्या युक्त प्रतिपदा में पूजन करने से व्यक्ति संकट से घिर जाता है । निर्धन हो जाता है ऐसा स्कन्द पुराण में लिखा है । क्यो की देवीपुराण के अनुसार अश्विननवरात्रि की प्रतिपदा जिसके पुत्र सुख नही है उन्हें पुत्र सुख प्राप्त होता  है । अमावस्या युक्त प्रतिपदा पुत्र सुख का नाश करती है । इन प्रमाण को देख के रुद्रयामल तन्त्र का निर्णय है कि द्वितीया युक्त प्रतिपदा में ही व्रत और कलश पूजन करें ।
भगवती के जिस रूप की आप उपासना करते है । उनके मन्त्र जप करें , जयन्ती मङ्गला काली" इससे यथा शक्ति हवन करें । ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।। इस मंत्र यथा शक्ति जप करे । भगवती के जिस रूप की उपासना करते है उनका पाठ करें । इस प्रकार प्रतिपदा से नवमी तक व्रत करें । भगवती यदि जागरण करना है तो अष्टमी या नवमी को करें । यदि इन दो दिन न हो सके तो षष्ठी को करें । दसमहाविद्या के उपासक अष्टमी में ही हवन करें। दुर्गा आदि शक्ति के उपासक नवमी में हवन करें । हवन के बाद यथा शक्ति कन्याओं को भोजन करायें । कन्या कैसी हों - कन्या 2 वर्ष से 10 वर्ष तक ही खिलानी या पूजन करना चाहिए उसके बाद वो त्याज्य है । 1 कुमारिका, 2 त्रिमूर्ति, 3 कल्याणी, 4 रोहिणी, 5 काली, 6 चण्डिका, 7 शाम्भवी, 8 दुर्गा, 9 श्रीमतीसुभद्रादेवी ,, इन नामों से यथा क्रम पूजन करना चाहिए । उदया तिथि के दशमी में वेद पाठी ब्राह्मण को भोजन करा के पारण करना चाहिए ।नवमी में पारण नहीं करना चाहिए । स्त्रियों को भी इसी प्रकार व्रत करना चाहिए, यदि वह व्रत में मध्य रजस्वला हो जायें तो किसी सुद्ध स्त्री, पति या ब्राह्मण से अपना पूजन करायें । स्वयं वहां से दूर रहे मन में भगवती का ध्यान करें । भूल से भी पूजन स्थली के सन्निकट न जायें । इस प्रकार नवरात्रि पूजन सम्पन्न करें । जय मां त्रिपुर सुन्दरी , जय बटुकनाथ।

Tuesday 12 September 2017

साधनाओं में बलि प्रथा

आज हम एक ऐसे विषय पे चर्चा करेंगे, जो कि अधिकाधिक साधकों को सोचने पे विवस कर देता है । वो विषय है मांसाहार और शाकाहार बलि प्रथा से जुड़ा है और यह अत्यन्त गलत भी है । जब हम अपने सात्विक धार्मिक ग्रंथों पे दृष्टि गोचर करते है, जैसे रामायण, गीता, भागवत् , शिव पुराण, विष्णु पुराण तो ये ग्रंथ बताते है कि लाहशुन, प्याज, गाजर तक नहीं खाना चाहिए । तो मांसाहार का तो कोई प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता कि कहीं प्राप्त हो की मांस का सेवन आध्यात्मिक है । यही हमें हर धर्मानुयाई से श्रवण करने को प्राप्त होता है। पर जब हम किसी पहाड़ो के मन्दिर जाते है जैसे काली मन्दिर या मैदानी क्षेत्र में तारा, छिन्नमस्ता, बटुक भैरव , संहार भैरव का मन्दिर या किसी तान्त्रिक ग्रन्थ को देखते  है। तो हमें बलि प्रथा दिखाई पड़ती है।  तो हम संसय में पड़ जाते है कि ये क्या है ये भी तो देवी देवता है फिर इन्हें मांस क्यों चढ़ता है । तो आपको बता दें कि शिव और शक्ति की उपासना में 2 मार्ग होते है । एक बाम मार्ग और एक दक्षिण मार्ग दोनों की मार्ग अपने में शक्ति शाली है । बाम मार्ग पूर्ण रूप से तान्त्रिक क्रियाओं से ओत प्रोत है । परन्तु दक्षिण मार्ग सन्यासी संत महात्माओं से पूर्ण सात्विक क्रिया से सम्बंधित है । इन मार्गों का चयन आपके गुरु से जुड़ा होता है । जिस मार्ग का अनुयाई आपका गुरु हो उसी मार्ग पर शिष्य को चलना चाहिए । हम अपने अनुभव के आधार पे बतायें तो बलि प्रथा नहीं होनी चाहिए । किसी भी जीव की हत्या से कोई साधना पूर्ण नहीं होती, बलि प्रथा से जुड़े लोगों की बहुत ही दर्दनाक मृत्यु होती है ।
प्राचीन काल में इंसान की भी बलि का प्रचलन था , ये और भी भयावह होता था 11 वर्ष तक के बालक की बलि दी जाती थी । कुछ लोग तो प्रौढ़ इंसान की भी बलि देते थे । पर इसका अभिशाप आज तक भोग रहे जिन राजाओं के यहां या जिन परिवार में नर बलि हुई थी 1 या 2 पीढ़ी के बाद उनका वंश समाप्त हो गया । क्यो की ऐसे परिवार में कुल पिशाच हो जाता है। जिनके परिवार में नर बलि होती है। 95% तो जब बलि बंद होती है, तो वंश नहीं चलता और अगर चला भी तो उस वंश के लोग प्रेत ही बनते है। उनका उद्धार नही होता वो पिशाच ही बनते है । क्यों कि जिनकी बलि दी जा चुकी है, उनमें प्रतिशोध की भावना के साथ प्राण का परित्याग किया है, तो "अन्ते मति सा गती" मतलब मृत्यु के समय जहां मति होती है वही रहता है । अर्थात वो आत्मा रूपी पिशाच न तो आपका वंश चलने देगा न ही सुखी रहने देगा । हाँ इससे बचने का मात्र एक साधन है। मांसाहार न करो और उस स्थान को छोड़ धर्म करो यदि आप धर्म करते हो और मांस भी नहीं खाते तो वंश चल सकता है पर उद्धार नही होगा । इस लिए जिसके वंश में ये हुआ है । उनको उस स्थान को छोड़ के धर्म करें और कभी मांसाहार न करें तभी बच सकते है ।
हम अपने बटुक साधकों को बता दें कि बटुक भैरव साधना में तीन मार्ग होते है 1 - बलि प्रथा । जिसका हम खण्डन करते है ये कोई आवश्यक नहीं कि बटुक साधना में बिना बलि के बाबा प्रसन्न नहीं होते ये भगवान शिव का बाल रूप है ऐसी कोई आवश्यकता है ।
2 - इस मार्ग में सेवा भाव देख के चलना होता है । बाबा की बच्चे की भाँति सेवा करनी होती है जो खाओ वही भोग लगाओ । बाबा को मदिरा बहुत प्रिय है । मदिरा का भोग आवश्यक है । साथ ही जो भोजन हमे फीका लगे पसंद न आये उसका भोग न लगायें । रात्रि पूजा में कभी रुकावट नही आनी चाहिए  ।
3 - ये पूर्ण दक्षिण मार्ग वालों के लिए है । आप सात्विक पूजन और भोग भी सात्विक करेंगे । मदिरा के स्थान पर खीर का भोग लगायेंगे । ये पूजन केवल अपनी किसी पूजा के रक्षा के लिए है , इससे सिद्धि नहीं प्राप्त हो पाती ।
विशेष आप जिस गुरु या पीठ से जुड़े है उसी के अनुसार सेवा करें । साथ ही यदि ब्राह्मण है तो मांस को ओंठ से स्पर्श न होने दें अन्यथा आप ब्राह्मण नहीं रह जायेंगे। वैसे भक्त में दया का भाव होना चाहिए इस लिए मांस से सदैव दूर ही रहना चाहिए ।