Tuesday 12 September 2017

साधनाओं में बलि प्रथा

आज हम एक ऐसे विषय पे चर्चा करेंगे, जो कि अधिकाधिक साधकों को सोचने पे विवस कर देता है । वो विषय है मांसाहार और शाकाहार बलि प्रथा से जुड़ा है और यह अत्यन्त गलत भी है । जब हम अपने सात्विक धार्मिक ग्रंथों पे दृष्टि गोचर करते है, जैसे रामायण, गीता, भागवत् , शिव पुराण, विष्णु पुराण तो ये ग्रंथ बताते है कि लाहशुन, प्याज, गाजर तक नहीं खाना चाहिए । तो मांसाहार का तो कोई प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता कि कहीं प्राप्त हो की मांस का सेवन आध्यात्मिक है । यही हमें हर धर्मानुयाई से श्रवण करने को प्राप्त होता है। पर जब हम किसी पहाड़ो के मन्दिर जाते है जैसे काली मन्दिर या मैदानी क्षेत्र में तारा, छिन्नमस्ता, बटुक भैरव , संहार भैरव का मन्दिर या किसी तान्त्रिक ग्रन्थ को देखते  है। तो हमें बलि प्रथा दिखाई पड़ती है।  तो हम संसय में पड़ जाते है कि ये क्या है ये भी तो देवी देवता है फिर इन्हें मांस क्यों चढ़ता है । तो आपको बता दें कि शिव और शक्ति की उपासना में 2 मार्ग होते है । एक बाम मार्ग और एक दक्षिण मार्ग दोनों की मार्ग अपने में शक्ति शाली है । बाम मार्ग पूर्ण रूप से तान्त्रिक क्रियाओं से ओत प्रोत है । परन्तु दक्षिण मार्ग सन्यासी संत महात्माओं से पूर्ण सात्विक क्रिया से सम्बंधित है । इन मार्गों का चयन आपके गुरु से जुड़ा होता है । जिस मार्ग का अनुयाई आपका गुरु हो उसी मार्ग पर शिष्य को चलना चाहिए । हम अपने अनुभव के आधार पे बतायें तो बलि प्रथा नहीं होनी चाहिए । किसी भी जीव की हत्या से कोई साधना पूर्ण नहीं होती, बलि प्रथा से जुड़े लोगों की बहुत ही दर्दनाक मृत्यु होती है ।
प्राचीन काल में इंसान की भी बलि का प्रचलन था , ये और भी भयावह होता था 11 वर्ष तक के बालक की बलि दी जाती थी । कुछ लोग तो प्रौढ़ इंसान की भी बलि देते थे । पर इसका अभिशाप आज तक भोग रहे जिन राजाओं के यहां या जिन परिवार में नर बलि हुई थी 1 या 2 पीढ़ी के बाद उनका वंश समाप्त हो गया । क्यो की ऐसे परिवार में कुल पिशाच हो जाता है। जिनके परिवार में नर बलि होती है। 95% तो जब बलि बंद होती है, तो वंश नहीं चलता और अगर चला भी तो उस वंश के लोग प्रेत ही बनते है। उनका उद्धार नही होता वो पिशाच ही बनते है । क्यों कि जिनकी बलि दी जा चुकी है, उनमें प्रतिशोध की भावना के साथ प्राण का परित्याग किया है, तो "अन्ते मति सा गती" मतलब मृत्यु के समय जहां मति होती है वही रहता है । अर्थात वो आत्मा रूपी पिशाच न तो आपका वंश चलने देगा न ही सुखी रहने देगा । हाँ इससे बचने का मात्र एक साधन है। मांसाहार न करो और उस स्थान को छोड़ धर्म करो यदि आप धर्म करते हो और मांस भी नहीं खाते तो वंश चल सकता है पर उद्धार नही होगा । इस लिए जिसके वंश में ये हुआ है । उनको उस स्थान को छोड़ के धर्म करें और कभी मांसाहार न करें तभी बच सकते है ।
हम अपने बटुक साधकों को बता दें कि बटुक भैरव साधना में तीन मार्ग होते है 1 - बलि प्रथा । जिसका हम खण्डन करते है ये कोई आवश्यक नहीं कि बटुक साधना में बिना बलि के बाबा प्रसन्न नहीं होते ये भगवान शिव का बाल रूप है ऐसी कोई आवश्यकता है ।
2 - इस मार्ग में सेवा भाव देख के चलना होता है । बाबा की बच्चे की भाँति सेवा करनी होती है जो खाओ वही भोग लगाओ । बाबा को मदिरा बहुत प्रिय है । मदिरा का भोग आवश्यक है । साथ ही जो भोजन हमे फीका लगे पसंद न आये उसका भोग न लगायें । रात्रि पूजा में कभी रुकावट नही आनी चाहिए  ।
3 - ये पूर्ण दक्षिण मार्ग वालों के लिए है । आप सात्विक पूजन और भोग भी सात्विक करेंगे । मदिरा के स्थान पर खीर का भोग लगायेंगे । ये पूजन केवल अपनी किसी पूजा के रक्षा के लिए है , इससे सिद्धि नहीं प्राप्त हो पाती ।
विशेष आप जिस गुरु या पीठ से जुड़े है उसी के अनुसार सेवा करें । साथ ही यदि ब्राह्मण है तो मांस को ओंठ से स्पर्श न होने दें अन्यथा आप ब्राह्मण नहीं रह जायेंगे। वैसे भक्त में दया का भाव होना चाहिए इस लिए मांस से सदैव दूर ही रहना चाहिए ।

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