Thursday 31 August 2017

दहेज़ लेने से समस्त पुण्य हो जाते है नष्ट

आज हम हिन्दू धर्म के 15वें संस्कार विवाह से जुड़ी कुछ बातों के बारे बताते है । वैसे हिन्दू धर्म में 8 प्रकार के विवाह होते है । जिनका शास्त्रों में वर्णन है, ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस, पिशाच ,, ये आठ प्रकार के विवाह होते है ।
1- पढ़े लिखे को वस्त्र आभूषण पहना कर पूजन करके कन्या दान करने को ब्रह्म विवाह 2- वेद पाठी, यज्ञ करने वाले को वस्त्र आभूषण  देकर पूजन करके कन्या दान को दैव विवाह
3- गाय बैल, घोड़े के जोड़े देकर विधि पूर्वक कन्या दान करना आर्ष विवाह है ।
4- दोनों पक्ष के लोग यह कहें कि दोनों खूब धर्म करो और पूजन के साथ कन्या दान करें यह प्राजापत्य विवाह है।
5- कन्या पक्ष की शक्ति के आधार पर उनकी प्रशन्नता से  वरपक्ष दान लेकर विवाह करे आसुर विवाह है।
वैसे इस प्रकार से भी इस विवाह को निन्दित ही कहा गया है, जब ये निन्दित है तो आज के समाज में विवाह नही व्यापार हो गया है, लड़की का जन्म होना श्राप हो गया है । कोई भी व्यक्ति ये नही चाहता कि उसे लड़की हो उसका कारण है ! दहेज समाज का ऐसा विष है जो कि धर्म को भी धूमिल करता है । देखा जाय तो विवाह दोनों पक्ष करते है। पर वर पक्ष की दृष्टि यही रहती है कि पूरे विवाह का खर्च ले और साथ साथ उनके ऊपर जिन्दगी भर का भार थोप दें । ये आज के विवाह की मंसा हो गई है । अनपढ़ ही नहीं पढ़े लिखे भी इस श्रेणी में आगे रहते है । परंतु जहां पर कन्या पक्ष से अत्यधिक मांग से विवाह होता है इसे एक दम निन्दनीय कहा गया है । ऐसे विवाह से दोनों पक्ष पाप की दृष्टि में आते है । जितना मांगने वाला दोषी है उतना ही देने वाला क्यों कि ऐसे विवाह में कोई देवता साक्षी नहीं बनता । क्यों कि किसी पे मन मानी बल का प्रयोग होता है तो वह अधर्म की श्रेणी में आ जाता है । और जहां अधर्म हो रहा वहां कोई देव नहीं आता । दहेज देना लेना दोनों ही पाप है , कितना भी धर्म करो इससे मुक्ति नहीं मिलती । दोनों पक्ष के लोग जो संकल्प लेते देते है , वो और वर वधू चारो ही पाप की श्रेणी में आते है । इस लिए कन्या पक्ष जितना अपनी इच्छा से दे उतना ही लेना चाहिए । कुछ लोग इसको कहते है कि जो कन्या के विवाह में नही देता वह अपनी लड़की को समझो बेच दिया, तो ये सर्वथा गलत है । बल कि कन्या पक्ष को तो कन्या दान का फल मिलता ही है साथ वर पक्ष भी पुण्य की दृष्टि में आ जाते है। प्रमाण -
यासां नाददते शुल्कं ज्ञातव्यो न स विक्रयः ।
अर्हणं तत्कुमारीणानृशंस्यं च केवलम् ।।
जातिवाले जिन कन्याओं पर शुल्क नहीं लेते वह बेचना नही है । वह तो कन्याओं का पूजन और हिंसारहित कर्म है , अर्थात दया का काम है ।।
6- कन्या और वर अपनी इच्छा से संबंध बनाते है उसे गंधर्व विवाह कहते है ।
7- लड़की के घर वालों को मार कर या उनके शरीर को चोट पहुंचा कर जो लड़की को उठा ले जाता है यह राक्षसी विवाह है ।
8- सोती हुई को लड़की बेहोश किया जाय या बल का प्रयोग करके सम्बन्ध बनाया जाय यह पिशाच विवाह में आता है । अन्तिम दोनों को शास्त्रों में निन्दनीय कहा है ऐसा करने वाला महा पापी होता है वह कितना भी धर्म दान कर ले उसे 1000 वर्ष की पिशाच योनि में भोगना पड़ता है । ऐसे लोगों के हाँथ जल भी नही ग्रहण करना चाहिए ।।
ब्रह्म, दैव, प्राजापत्य, और गान्धर्व ये चार विवाह उत्तम और अच्छे बताये गए है । इनके अतिरिक्त चारो विवाह त्याज्य है ।
कन्या की इच्छा से वर के हाँथ में कन्या का हाँथ देने से पाणिग्रहण संस्कार है होता इसी से विवाह पूर्ण होता है या कहिये मान्य होता है ।
यदि आज के समय की बात करें , जो हो रहा है तो विवाह में अधिकधिक धन का व्यय किया जाता है कि विवाह हो रहा है । आये हुए लोगों पर अनावश्यक धन का व्यय होता है । जब कि आवाहित देवता के ऊपर अक्षत मात्र से ध्यान कर लिया जाता है कि कितनी जल्दी पूजन समाप्त हो, बिचार करिये जिसको अपने साक्षी माना विवाह किया उनको तो आपने समय ही नही दिया । क्या होगा ऐसे विवाह का भविष्य?, इस लिए जो करिये अच्छे से नही तो नही । वैसे भी इसी लिए गान्धर्व विवाह को उत्तम बताया गया क्यो की उसमें दान दहेज नहीं चलता । जिन विवाहों में वर पक्ष की इच्छा से दान लिया जाता है । उस विवाह को आसुर विवाह ही कहा जायेगा आसुर विवाह और पिशाच विवाह के मिलने वाले पाप एक जैसे ही है । इस लिए दहेज नही लेना चाहिए ।


Wednesday 30 August 2017

इंसान कभी भगवान नहीं होता ......,

प्रत्येक वह व्यक्ति जो भक्ति करता है , उसकी यही मंसा होती है कि मृत्योपरांत हमें मुक्ति की प्राप्ति हो । और इस भावना से वह गुरु के शरण में जाता है । हमें भगवत् मार्ग का अवलोकन कराइये और गुरु अपने ज्ञान के अनुसार मार्ग बताता है । परन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात क्या उस गुरु को पता है ? कि मुक्ति का मार्ग क्या है ? व्यक्ति यहीं पर जल्द बाजी कर जाता है । कुछ लोग वंसानुगत गुरु से दिक्षा ले लेते है। वैसे ये गलत नही पर शिष्य का कर्तव्य होता है कि जिससे आप दिक्षा ले रहे क्या उसे उस देवी देवता के बारे में पता है । क्या वो संध्या पूजन या साधना करता है या नहीं ये जानना आवश्यक है । आज के समय में कुछ गुरु बानें घूम रहे जो स्वयं को ही परमात्मा का अवतार बताते है । अपनी ही पूजा कराते अपनी रामायण तक बना डाले है । और सबसे आश्चर्य की बात ये है कि व्यक्ति उनके इस मिथ्या भाषण को सत्य मान लेता है । शास्त्रों का मत है जो मनुष्य अपनी पूजा कराता है वह प्रेत बनता है। और जो उनकी पूजा करता है वह प्रेत ही बनता है , क्यो की उद्धार करने का कार्य परमात्मा का है इंसान का नही । बहुतायत लोग मृत लोगों की उपासना करते है । वैसे मृत की उपासना होती है ऐसा नहीं है कि नहीं होती । पर बात ये आजाती है कि वो आपका कौन है । माता पिता या गुरु इनको प्रणाम कर सकते है इसके अतिरिक्त यदि किसी सन्यासी की समाधि है तो प्रणाम कर सकते है । पर कुछ लोग जहां पाते है वहीं सर झुकने लगते है हाँथ जोड़ने लगते है । एक कहावत है "जो हर जगह झुकता है उसे जीवन पर्यन्त झुक के ही रहना पड़ता है" हम सनातन है तो सनातन धर्म के नियम अनुसार ही पूजन और वन्दना करनी चाहिए । सनातन धर्म कहता है इंशान की वन्दना नही करनी चाहिए । चाहे वह जीवित इंशान हो या मृत, इंसान की उपासना नही करनी चाहिए । इंशान कभी भगवान नही बन सकता । खुद सोचिए आदि शंकराचार्य जी जैसे महा संत जिन्होंने केवल देव पूजन और धर्म का उपदेश ही दिया । इतने बड़े सिद्ध संत ने कभी अपने को भगवान नही कहा । इसी बात को भगवान ने गीता में कहा -
यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोsपि माम् ।। ( गीता नवम अध्याय )
अर्थात् - देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते है, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं।भूत प्रेतों को पूजने वाले भूतों प्रेतों को प्राप्त होते है और मेरा पूजन करने वाले भक्त हमको प्राप्त होते है ।
कुल सार सर्वस्व ये है कि मनुष्य को कभी किसी मनुष्य की उपासना नही करनी चाहिए ।
चाहे वह मृत हो या जीवित मनुष्य गुरु बन सकता है भगवान नही । भगवत मार्ग दिखाये तो गुरु है और खुद को ईश्वर बताये तो राक्षस है ।

Tuesday 29 August 2017

गुरु के प्रकार

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में माता पिता प्रथम गुरु होते है । माता, पिता, गुरु यही तीन ऋण भी होते है , जब तक ये तीन जीवित हो सेवा करे सानिध्य या ज्ञान ले । परन्तु माता पिता को छोड़ गुरू का चयन बहुत ज़रूरी होता । क्यों की गुरू के पुण्य से शिष्य सिद्ध होता है परमात्मा के निकट पहुँचता है तो गुरू यदि कोई पाप करे तो शिष्य को भी मिलता । इस लिए यदि गुरू में कमी दिखे तो उसका परित्याग कर देना चाहिए। शास्त्र का मत यहाँ तक है कि यदि आपका गुरू ब्राह्मण और आप किसी भी जाति के हो तो आपके धर्म का मूल्याँकन उसी ब्राह्मण गोत्र से किया जायेगा और यदि आपने किसी और जाति के गुरू से मन्त्र लिया तो आपके धर्म का भी मूल्याँकन उसी जाति से होगा । संत की जाति नहीं होती पर वह संत भगवान या कहें दैविक मार्ग का अनुयाई होना आवश्यक होता । वेद वेदान्त उपनिषद का ज्ञान आवश्यक है । किसी को भी आध्यात्मिक या कहिये ज्ञान वर्धक गुरु बनाना चाहिये । हिन्दू धर्म वेदों पर आधारित है इस लिये गुरू को वैदिक ज्ञान होना आवश्यक है । तभी वह अपने साथ साथ शिष्य का भी उद्धार करता है । गु = अन्धकार, रु = प्रकाश की तरफ ले जाने वाला। गुरु कई हो सकते है वैसे गुरु के 3 प्रकार है 1 शैक्षिक - जो आपको पढ़ता है । 2 - मार्गिक - जो आपको बक़ताये ये सही है ये गलत है। दूसरे में ही आ जाते है कथा वक्ता प्रवचन करने वाले । जो हमारे बड़े रिस्तेदार होते है । या कोई भी हो सकता है । 3 - दैविक - वो गुरु जो मुक्ति का मार्ग प्रसस्त करे । आपको गुप्त मंत्र देकर आपका मार्ग निर्धारित करे । जिसको वेदों शास्त्रों का ज्ञान हो । या जैसे आप कोई साधना कर रहे हो तो उस साधना को उन्होंने किया हो और उस मार्ग के बारे में सम्यक जानकारी हो ऐसा गुरु ।
शास्त्र कहते है प्रथम दो प्रकार के जो गुरु है उन्हें समय आने पर छोड़ देना चाहिए जब जक वो पढ़ायें या कथा कहे उपदेश दे तभी तक के लिए उनकी सेवा करो सम्मान करो उसके बाद नहीं । मनु स्मृति कहती है -
अब्रह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते ।
अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्ययनं गुरो।।
अर्थात - जब दैवज्ञब्राह्मण गुरु का सानिध्य न हो, आपात काल हो क्षत्री आदि ( क्षत्री, वैश्य, शूद्र, और भी किसी से ) से भी पढ़ा या ज्ञान लिया जा सकता है । परंतु उस गुरु का अनुगमन और सेवा तब तक ही करे जब तक वह पढ़ता रहे या सीखता रहे ।
उसके बाद उसका गुरु रूप से नही मनना चाहिए ।

Monday 28 August 2017

ज्ञान और संस्कार ये कहीं से भी प्राप्त हो उसे ग्रहण करना चाहिए

यदि हमें जीवन मे कुछ प्राप्त करना है, तो शिक्षा देने वाला नीच हो तब भी विद्या अध्ययन अवश्य सीखना चाहिए। चाण्डाल के पास से भी परम धर्म के मार्ग का अवलोकन करना चाहिए , और उसे ग्रहण करना चाहिए । अच्छे आचरण और मर्यादित सुन्दर स्त्रीरत्न को नीच कुल से भी ग्रहण कर लेना चाहिए । "क्यो की स्त्री जाति और कुल से नहीं गुण और सुन्दरता से सम्मानित होती है " ऐसी स्त्री मिले तो रत्न के सदृश मान कर ग्रहण करें । दुर्गुण में भी गुण खोज कर ग्रहण करें , बालक को न देखो यदि सुन्दर प्रिय वचन नही है तो बेकार है , और यदि इसके विपरीत होतो सुन्दर वचन से बालक को ग्रहण करो, शत्रु के भी गुण देखना चाहिए यदि अच्छे हों तो उसे ग्रहण करो, कितना भी अशुद्ध स्थान पे स्वर्ण गिर जाये उसे ग्रहण करना चहिये।। शास्त्र प्रमाण -
श्रद्दधानः शुभं विद्यामाददीतावरादपि।
अन्त्यादपि परं धर्मे स्त्रीरत्नं  दुष्कुलादपि।।
विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम् ।
अमित्रादपि सद्दृत्तममेध्यापि काञ्चनम् ।।
श्रद्धापूर्वक नीच से अच्छी विद्या को, चाण्डाल से भी परम धर्म को, और नीच कुलसे भी  स्त्रीरत्न को ग्रहण करै। विष से भी अमृत को, बालक से सुन्दर वचन को, वैरी से भी सुन्दर आचरण को, अशुद्ध स्थान से भी सुवर्ण को लेना चाहिए ।
"स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्म: शौचं सुभाषितम्।
विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः।।
अर्थात - स्त्री को, रत्न, विद्या, धर्म, पवित्रता, सुन्दर वचन और अनेक प्रकार की कारीगरी इनको सबसे लेना चाहिए ।

Sunday 27 August 2017

व्यक्ति आयु से नही ज्ञान से बड़ा होता है

किसी भी व्यक्ति का बाल पका हो अवस्था हो गई हो, पढ़ा लिखा न हो या पढ़ा लिखा हो कर भी दूसरे का देख कर ही कार्य करे। विवेक का प्रयोग न करे तो वह बड़ा नहीं होता उसकी सलाह से नहीं चलना चाहिए । आयु में कम हो पढ़ा लिखा हो विवेक का प्रयोग करता हो मात्र दूसरों को न देखे अपने विवेक से निर्णय ले ऐसा व्यक्ति कम आयु का हो, तरुण अवस्था में भी हो तो उसे देवता भी वृद्ध मानते है । "दूसरों को देखने का हमारा भावार्थ ये नहीं कि दूसरों को नही देखना चाहिए या उनसे सीखना नही चाहिए । हमारा कहने का अभिप्राय है कि अनुभव लेना चाहिए ये बुद्धिमान का धर्म है । पर उसमें भविष्य को लेकर समझने की क्षमता हो कि इसका भविष्य में क्या फल होगा, मात्र वर्तमान और भूत में बीती बातों को ही प्रमाण मानें तो वह सम्मानित व्यक्ति नही क्यों कि वह अपने साथ दूसरों का भी भविष्य अन्धकार में ले जाता है" ।
ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य कुल में जन्म लेने से भी कोई बड़ा नही होता बिना ज्ञान के वो मूर्ख ही होता है । जैसे ब्राह्मण को ज्ञान के लिए जाना जाता है , इस लिए ब्राह्मण के अन्दर प्रत्येक प्रकार का ज्ञान आवश्यक है । उसमें मुख्य रूप से श्रुति यानी वेद का ज्ञान, देवी देवताओं के पूजन का और यज्ञ का इसके साथ साथ वर्तमान समय में चल रही स्थिति के अनुसार हर क्षेत्र का ज्ञान जरूरी है । यदि ऐसा नहीं है तो वह नाम के लिए ब्राह्मण है । जैसे काठ का हाँथी और मृत चर्म का हिरण । इस लिए सबसे बड़ा ज्ञान है । इस बात को शास्त्रों ने इस प्रकार कहा-
न तेन बृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः ।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा स्थविरं विदुः ।।
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः।
यश्च विप्रोsनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।
अर्थात - सिरके बाल सफेद होने से कोई बड़ा नही होता ।  जिसकी अभी कम युवा है, जवान है, तरुण अवस्था में पढ़ा लिखा हो उसे देवता भी वृद्ध समझते हैं।।
काठ का हांथी, चमड़े का हिरण और बिना पढ़ा ब्राह्मण ये तीनो केवल नाम ही धारण करते है इन्हें केवल नाम के लिए बुलाया जा सकता है , कि ये हांथी है ये मृग है ये ब्राह्मण है । पर उनका अस्तित्व नही के बराबर ही होता है ।

Saturday 26 August 2017

श्री बटुकभैरवनाथ से ज्यादा दयालु कोई नही

भगवान् बटुक भैरव की पूजा स्वयं में एक ऐसी साधना है जो कि आपकी कुण्डली का भाग्य या ब्रह्माण्ड में आपसे कोई कुपित हो या रुष्ट हो आपका कोई बाल बाका नहीं कर सकता है। बाबा की साधना कल्पवृक्ष के समान है ,जो आप कल्पना करते हो वह सब बाबा की सेवा और साधना से प्राप्त हो जाती है । इस बात में कोई संदेह नही है ! बस ध्यान इस बात का रखना पड़ता है कि श्री बटुक साधना के साथ कोई साधना नहीं की जाती जैसे एक पत्नी के लिए उसका पति ही सबकुछ है उसी भाँति हमें अपने दिल दिमांक में बाबा को ही रखना है। किन्तु वह पत्नी किसी का अपमान नही करती पूरे घर का सम्मान करती है । ठीक उसी प्रकार हमें किसी भी देवी देवता का अपमान नहीं करना पर दिल दिमांक में अपने बटुकनाथ को रखना है। श्याम शलोना सुन्दर सा मुखड़ा नटखट चितचोर पांव में घुंघुरू, कानों में कुण्डल , कमर में नाग की करधनी, त्रिनेत्रधारी, गले में रुद्राक्ष माला, एक हाँथ में मदिरा से भरा खप्पर और एक हाँथ में दण्ड लिए  ऐसा सुन्दर सा रूप जिसकी एक नही 10 महाविद्या 64 योगिनियां जिसकी मां है । जिसके साथ रहती है ! कुत्तो के साथ खेलते है ऐसे मनोहारी रूप को कुछ लोग कहते है बहुत क्रोधी देवता है ये उनकी भूल है । मैं आपको बता दूं कि मेरे बाबा जैसा कोई देवता नहीं साक्षात शिव के इस बाल रूप को मैं क्रोधी नहीं मानता हाँ यदि अपने भक्त की रक्षा करना और उसके शत्रुओं का नष्ट करना क्रोध है तो मेरे बाबा  बटुकनाथ से ज्यादा क्रोधी कोई नहीं है। अपने भक्त पर बाबा कभी क्रोधित नही होते है । हाँ बालक रूप है इस लिए कुछ नियम जरूर है । जैसे पूजा में कभी नागा न हो जो भी खायें उससे पहले बाबा स्मरण जरूर करें । आप रेलगाड़ी में हो या किसी भी यात्रा वाहन पे हो जाप और बाबा का स्मरण रात्रि काल में जरूर करें, फिर बाबा की माया आप पर सदैव बनी रहेगी। अब आपके दिमांक में होगा कि यात्रा में स्नान कैसे होगा तो सर्व प्रथम अपनी शुद्धता को देखें यदि आप मल मूत्र का त्याग करने के बाद स्नान नहीं किये तो सम्भव प्रयास करें कि कमर से स्नान कर लें वस्त्र बदल कर जाप करें।
यदि ये सम्भव न हो तो बटुक साधक को 2 माला रखनी चाहिए एक रुद्राक्ष और एक काला हकीक , शुद्ध की अवस्था में रुद्राक्ष से स्वच्छ न होने की स्थिति में हकीक से । स्त्रियों को मासिक धर्म के समय 5 दिन पूजा नही करनी चाहिए परन्तु जो बटुक साधिका हो वो उस समय में बिना माला के बिना मुह से बोले मन मे बाबा के मन्त्र का चिंतन करें । बाबा मेरे बहुत भोले और दयालु है , मैंने ऊपर कहा कि कल्प वृक्ष के समान है पर एक स्थान ऐसा आता है जहाँ कल्प वृक्ष भी छोटा पड़ जाता है । वो है मोक्ष की प्राप्ति कल्पवृक्ष मोक्ष नहीं दे सकता और बटुकनाथ की साधना से आप मृत्यु के बाद मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते है । किसी भी प्रकार की श्री बटुक भैरव साधना से सम्बन्धित जानकारी के लिए , ईमेल या टिप्पड़ी (कमेंट) कर सकते है । जय बटुकभैरवनाथ

Friday 25 August 2017

धर्मपर तर्क करने वाले से बहस नही करना चाहिए उन्हें छोड़ दे ,

प्रकृति के काल चक्र में आज का भी समय चल रहा प्रत्येक व्यक्ति भौतिकता को ही मुख्य आधार मान कर चल रहा अपने वास्तविक परिवेश को विषमृत हो जा रहा भौतिक युग में भौतिकता को अपनाना कोई गलत नही परन्तु अपने मूल को भी पहचानना बहुत ही आवश्यक है । धर्म तर्क नहीं आस्था का विषय इसे किसी पे थोपा नहीं जा सकता । परन्तु आज धर्म का पालन करना मात्र कल्पना हो गया आज के पढ़े लिखे लोगों से धर्म के लिए पूंछा जाय तो अनपढों की भाँति वेद और धर्म शास्त्रों पर तर्क करते है ऐसे लोगों के लिए शास्त्रों में लिखा है कि उनसे तर्क न करें उन्हें छोड़ दे खास कर द्विजों के लिये है कि वो तो पूर्ण रूप से पतन का मार्ग प्रशस्त कर रहे इस लिए विद्वत जन उनसे दूर हो जायें तर्क न करें ।
योsवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद्विजः।
स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः।।
अर्थात् - जो द्विज ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) दोनों धर्म के मूलों ( वेद, धर्मशास्त्र ) पर तर्क करे अपमान करे वह नास्तिक और वेद निन्दक है साधु जनों को उसका त्याग कर देना चाहिए ।

Saturday 5 August 2017

7/08/2017 रक्षा बन्धन/ चन्द्र ग्रहण

रक्षा बन्धन
भाई बहन का मुख्य पर्व रक्षा बन्धन ७ अगस्त २०१७ को है ।
प्रातः १०:३० तक भद्रा है वैसे चन्द्रमा मकर राशि में है तो भद्रा स्वर्ग में है, तो ये भद्रा हानि कारक नहीं है । इस लिए यदि आप १०:३० के पहले भी बांधते है तो भी कोई हानि नहीं परंतु अपराह्न  १४:४५ तक रक्षा बन्धन का कार्य सम्पन्न कर ले । क्यों कि अपराह्न १४:५३ पे चन्द्र ग्रहण का सूदक लग जायेगा ।
चन्द्र ग्रहण -
७ अगस्त २०१७ की रात्रि में लगने वाला ये चन्द्र ग्रहण साधको के लिए खास है । चूणामणि योग है इस ग्रहण में , ग्रहण से पहले अपने मंत्र को अधिक से अधिक जाप करें १ दिन पहले से ही संकल्प लेकर ग्रहण की अवधि तक एक निश्चित संख्या को पूरा करें और ग्रहण लगने पे स्नान करके बैठ जायें देव मूर्ति को ग्रहण काल में स्पर्श न करें ग्रहण काल में कुछ खाना पीना नहीं चाहिए , रोगी, शिशु के लिए छूट है । कुछ लोगों को हमने देखा है सूतक काल से ही मन्दिर बन्द कर देते है मूर्ति नहीं छूते ऐसा कोई विधान नहीं है सूतक काल में ऐसा कोई प्राविधान नही है । मात्र ग्रहण काल में ऐसा करना चाहिए सूतक काल में जप का अर्ध फल होता है इस लिए उस समय से बैठ जाना चाहिए । ग्रहण के अंतिम क्षण में हवन करें स्नान फिर चन्द्र अर्घ दें इससे आपकी मंत्र साधना का ग्रहण चरण पूर्ण होगा।
ग्रहण काल - स्पर्श - २२:५३, मध्य २३:५०, मोक्ष २४:४८,
द्वादश राशि पर ग्रहण का प्रभाव -
१ मेष - सुखम्, २ वृष - माननाश ,३ मिथुन - मृत्यु तुल्य कष्ट , ४ कर्क - स्त्रीपीड़ा, ५ सिंह - सौख्य, ६ कन्या - चिन्ता, ७ तुला - व्यथा, ८ वृश्चिक - श्री:, ९ धनु - क्षति , १० मकर - घात, ११ कुम्भ - हानि, १२ मीन - लाभ ।

Thursday 3 August 2017

जीवन में कोई भी चीज सरल नहीं

जीवन एक भव सागर है । व्यक्ति भावनाओं में बहता रहता है और जो भी चीज दिखती है उसके प्रति लालायित होने लगता है । पर ये सम्भव नही दुनिया में प्रत्येक वस्तु या सम्बन्ध के आंत्रिक गुणों को प्राप्त करना असम्भव है । मनुष्य का ऐसा स्वभाव भी है कि अपनी चीज से अगले की चीज या सुख ज्यादा ही दिखता है उसको सन्तुष्टि नहीं होती। परन्तु सामने से दिखने वाली हर चीज वैसी नही होती जैसी दिखती है ये भी कटुक सत्य है, उसमे विकार अवस्य होता है । इसी प्रकार साधना के जीवन में भी यदि कोई व्यक्ति अलग साधना करता दिखता है तो उत्सुकता होती है कि इस साधना में क्या है जो मेरी वाली साधना में नहीं है । इसे भी पा लिया जाय पर भौतिक सुख में और साधनात्मक सुख में बहुत अन्तर है यदि आपने कोई भी साधना सुरु की और उसका आपकी साधना से विपरीत मार्ग है तो, आप न इधर के रहोगे न उधर के हाँ स्मरण करना अलग है । पर उस मार्ग पर अग्रसर होना ये खतरनाक है । जैसे आप सात्विक साधक है और आपने तान्त्रिक देव साधना की तो आपका सात्विक मार्ग बाधित हो जायेगा सात्विक देवता आपको छोड़ देगा । यदि तान्त्रिक साधना किया और साथ में किसी प्रेत या यक्षिणी साधना किया तो तान्त्रिक देवता आपको बचा तो लेगा पर कुछ समय में आपको छोड़ देगा । उसी प्रकार यदि आपने पिशाच साधना पहले किया बाद में देव साधना तो आपके प्राण भी जा सकते है । वैसे तो कोई भी साधना या अभीष्ट प्राप्ति का मार्ग सरल कभी नही होता सरल वही होता है, जहाँ कुछ नहीं होता है। यदि आपको कोई बड़ी उपलब्धि या बड़ी सिद्धि प्राप्त करनी है तो खतरों से तो खेलना ही पड़ेगा । शास्त्रों में भी कहा गया है -
न संशयमनारुहय नरो भद्राणि पश्यन्ति।
संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यन्ति ।।
अर्थ - मनुष्य अपने को खतरे में डाले बिना विशिष्ट लाभ नहीं पा सकता यदि खतरे से बच गया तो उस लाभ का सुख वह भोगता ही है ।।
इस लिए दिल से एक ही साधनात्म मार्ग पर चलना चाहिए और डरना नही चाहिए यदि कोई अच्छा गुरु मिले तो सर्वोपरि है। हमारे लेख का मतलब यह नहीं कि आप डर जाओ या अनावश्यक कहीं जा के कूद पड़ो की यहाँ खतरा है तो ये मार्ग सही है । हमारा अभिप्राय है कि जिस लक्ष्य को भी हम अपनायें उसी पर पूरा ध्यान केन्द्रित करें क्यों कि कोई भी मार्ग सरल नहीं होता है ।।