प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में माता पिता प्रथम गुरु होते है । माता, पिता, गुरु यही तीन ऋण भी होते है , जब तक ये तीन जीवित हो सेवा करे सानिध्य या ज्ञान ले । परन्तु माता पिता को छोड़ गुरू का चयन बहुत ज़रूरी होता । क्यों की गुरू के पुण्य से शिष्य सिद्ध होता है परमात्मा के निकट पहुँचता है तो गुरू यदि कोई पाप करे तो शिष्य को भी मिलता । इस लिए यदि गुरू में कमी दिखे तो उसका परित्याग कर देना चाहिए। शास्त्र का मत यहाँ तक है कि यदि आपका गुरू ब्राह्मण और आप किसी भी जाति के हो तो आपके धर्म का मूल्याँकन उसी ब्राह्मण गोत्र से किया जायेगा और यदि आपने किसी और जाति के गुरू से मन्त्र लिया तो आपके धर्म का भी मूल्याँकन उसी जाति से होगा । संत की जाति नहीं होती पर वह संत भगवान या कहें दैविक मार्ग का अनुयाई होना आवश्यक होता । वेद वेदान्त उपनिषद का ज्ञान आवश्यक है । किसी को भी आध्यात्मिक या कहिये ज्ञान वर्धक गुरु बनाना चाहिये । हिन्दू धर्म वेदों पर आधारित है इस लिये गुरू को वैदिक ज्ञान होना आवश्यक है । तभी वह अपने साथ साथ शिष्य का भी उद्धार करता है । गु = अन्धकार, रु = प्रकाश की तरफ ले जाने वाला। गुरु कई हो सकते है वैसे गुरु के 3 प्रकार है 1 शैक्षिक - जो आपको पढ़ता है । 2 - मार्गिक - जो आपको बक़ताये ये सही है ये गलत है। दूसरे में ही आ जाते है कथा वक्ता प्रवचन करने वाले । जो हमारे बड़े रिस्तेदार होते है । या कोई भी हो सकता है । 3 - दैविक - वो गुरु जो मुक्ति का मार्ग प्रसस्त करे । आपको गुप्त मंत्र देकर आपका मार्ग निर्धारित करे । जिसको वेदों शास्त्रों का ज्ञान हो । या जैसे आप कोई साधना कर रहे हो तो उस साधना को उन्होंने किया हो और उस मार्ग के बारे में सम्यक जानकारी हो ऐसा गुरु ।
शास्त्र कहते है प्रथम दो प्रकार के जो गुरु है उन्हें समय आने पर छोड़ देना चाहिए जब जक वो पढ़ायें या कथा कहे उपदेश दे तभी तक के लिए उनकी सेवा करो सम्मान करो उसके बाद नहीं । मनु स्मृति कहती है -
अब्रह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते ।
अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्ययनं गुरो।।
अर्थात - जब दैवज्ञब्राह्मण गुरु का सानिध्य न हो, आपात काल हो क्षत्री आदि ( क्षत्री, वैश्य, शूद्र, और भी किसी से ) से भी पढ़ा या ज्ञान लिया जा सकता है । परंतु उस गुरु का अनुगमन और सेवा तब तक ही करे जब तक वह पढ़ता रहे या सीखता रहे ।
उसके बाद उसका गुरु रूप से नही मनना चाहिए ।
शास्त्र कहते है प्रथम दो प्रकार के जो गुरु है उन्हें समय आने पर छोड़ देना चाहिए जब जक वो पढ़ायें या कथा कहे उपदेश दे तभी तक के लिए उनकी सेवा करो सम्मान करो उसके बाद नहीं । मनु स्मृति कहती है -
अब्रह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते ।
अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्ययनं गुरो।।
अर्थात - जब दैवज्ञब्राह्मण गुरु का सानिध्य न हो, आपात काल हो क्षत्री आदि ( क्षत्री, वैश्य, शूद्र, और भी किसी से ) से भी पढ़ा या ज्ञान लिया जा सकता है । परंतु उस गुरु का अनुगमन और सेवा तब तक ही करे जब तक वह पढ़ता रहे या सीखता रहे ।
उसके बाद उसका गुरु रूप से नही मनना चाहिए ।
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